संकलित: अशोक के फूल ( हजारी प्रसाद द्विवेदी)
रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा बहुमुखी थी,परंतु प्रधान रूप से वह कवि थे। कविता में भी उनका झुकाव गीति कविता की ओर था। उन्होंने गाने में आनंद पाया, सुर के माध्यम से परम सत्य का साक्षात्कार किया और समस्त विश्व में अखंड सुर का सौंदर्य व्याप्त देखा। एक प्रसंग में उन्होंने कहा था," गान के सुर के आलोक में इतने देर बाद जैसे सत्य को देखा । अंतर में यह ज्ञान की दृष्टि सदा जाग्रत न रहने से ही सत्य मानो तुच्छ होकर ही दूर खिसक पड़ता है। सुर का वाहन हमे उसी पर्दे की ओट में सत्य के लोक में बहा करके ले जाता है। वहाँ पैदल चलकर नही जाया जाता, वहां की राह किसी ने आंखों नही देखी।"
रवीन्द्रनाथ का सम्पूर्ण साहित्य संगीतमय है। उनकी कविताये गान है,परंतु उनके पास केवल ताल-सुर के वाहन नही हैं, अर्थगाम्भीर्य और शब्द माधुर्य के भी आगार हैं। असल मे जिस प्रकार उनकी कविताओं में संगीत का रस है, उसी प्रकार बल्कि उससे भी अधिक , उनके गाने में कवित्व है। सुर से विचुत होने पर भी उनके गान प्रेरणा और स्फूर्ति देते हैं। उन्होंने सैकड़ों गान लिखे हैं। ये गान गए जाने पर ही ठीक ठाक समझे जा सकते हैं।
अपने एक गान में वे अपने परमाध्य को पुकार कर कहते हैं-" तुम्हारे सुर की धारा मेरे मुख और वक्षः स्थल पर सावन की झड़ी के समान झड़ पड़े। उदयकालीन प्रकाश के साथ वह मेरी आँखों पर झड़े, निशीथ के अंधकार के साथ यह गंभीर धारा के रूप में मेरे प्राणों पर झड़े, दिन-रात वह इस जीवन के सुखों और दुखों पर झड़ती रहे। तुम्हारे सुर की धारा सावन की झड़ी के समान झड़ती रहे। जिस शाखा पर फल नही लगते , फूल नहीं खिलते, उस शाखा को तुम्हारी यह बादल- हवा जगा दे। मेरा जो कुछ भी फटा- पुराना निर्जीव है, उसके प्रत्येक स्तर पर तुम्हारे सुखों की धारा झड़ती रहे, दिन रात इस जीवन का भूख पर और प्यास पर वह सावन की झड़ी के समान झड़ती रहे।"
श्रावणेर धारार मतो पड्डूक झरे पढुक झरे,
तोमारी सुर त आमार मुखर पर बुकेर परे।
पुरबेर आलोर साथे झड़ूक पाते दुइ नयाने
निशिथेर अंधकारे गंभीर धारे झड़ूक प्राने
निशिदिन एइ जीवनेर सुखेर परे दुःखेर परे
श्रावणेर धारार मतो पड्डूक झरे पढुक झरे।।
के शाखाएँ फुट फोटे ना फल धरे ना एकबारी।
तोमारी बादल बाये दिक् जागये सेइ शाखारे।
या किछ जीर्ण आमार दीर्ण आमार जीवनहारा
ताहारी स्तरे- स्तरे पढुक झरे सुरेर धारा
निशिदिन एइ जीवनेर तुषार परे भूखेर परे
श्रावणेर धारार मतो पड्डूक झरे पढुक झरे।।
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