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कुछ कविताएं : संजय कुंदन



1

ये साधारण लोगों की

पराजय की कहानियां हैं

जब टीवी के पर्दे पर

खुलते हैं जुर्म के पन्ने 

अक्सर दिखता है कमजोर आदमी ही

मुजरिम की जगह

नज़र आता है एक छोटा शहर या कस्बा

एक मलिन बस्ती, टेढ़ी-मेढ़ी गालियां

पुराने मकान के छप्पर

कबूतरों के दड़के और हैंड पम्प

इनमे जो अपराधी दिखता है

वह तो खुद ही मर चुका होता है

किसी की जान लेने से पहले

नहीं दिखाया जाता उसका मरना

बार-बार मरना

रोज-रोज ,थोड़ा -थोड़ा मरना।


2

उन्हें पसंद था

एक तितली को मुट्ठी में बंद कर

उसे फड़फड़ाते देखना

वे पूरी दुनिया को अपने अस्तबल की तरह देखते थे

वे घोड़ों से ज्यादा

आदमी को हांकना पसंद करते थे

वे पूरी धरती में

अपना वीर्य रोपना चाहते थे

उन्होंने ही रची थी दंड संहिताएँ

उन्होंने ही नियुक्त किये थे

न्यायाधीश और संतरी

उन्होंने ही बनाएं थे अपराधी।


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