Skip to main content

उदय प्रकाश की कविता

 कविता~  एक जल्दबाज बुरी कविता में आंकड़े- 


कविता का एक वाक्य लिखने में दो मिनट लगते हैं

इतनी देर में चालीस हजार बच्चे मर चुके होते हैं

ज्यादातर तीसरी दुनिया के

 भूख और रोग से

दस वाक्यों की खराब जल्दबाज कविता में अमूमन लग जाते है

बीस से पच्चीस मिनट

इतनी देर में चार से पाँच लाख बच्चे समा जाते हैं

मौत के मुँह में

कविता अच्छी हो इतनी की कवि और आलोचक

उसे कविता कहना पसंद ना करें या उसके कई ड्राफ्ट तैयार हों

तो तब तक कई करोड़ बच्चे, कई हज़ार या लाख औरतें और नागरिक

मर चुके होते हैं निरपराध इस विश्वतंत्र मे

यानी ज्यादा मुकम्मल कविता के नीचे

एक बहुत बड़ा शमशान होता है

जितना बड़ा शमशान

उतना ही कवि और राष्ट्र महान।

           -उदय प्रकाश

Comments

Popular posts from this blog

तमस उपन्यास की समीक्षा

भीष्म साहनी का उपन्यास तमस 1973 जाति-प्रेम, ,संस्कृति,परंपरा,इतिहास और राजनीति जैसी संकल्पनाओं की आड़ में शिकार खेलनेवाली शक्तियों के दुःसाहस भरे जोखिमों को खुले तौर पर प्रस्तुत करता है। इसमें लेखक ने 1947 ई. के मार्च-अप्रैल में हुए भीषण साम्प्रदायिक दंगे की पांच दिनों की कहानी इस रूप में प्रस्तुतु की है कि हम देश-विभाजन के पूर्व की सामाजिक मानसिकता और उसकी अनिवार्य परिणति की विभीषिका से पूरी तरह परिचित हो जाएं। उपन्यास के पात्रों महेताजी, वानप्रस्थी,जनरैल,बख्शी जी,नत्थू, मुरादली,देवव्रत,रणवीर, आदि के माध्यम से भीष्म साहनी फिरकापस्ति, कट्टरधर्मिता, और धर्मान्धता आदि की मनःस्थितियों कर सामाजिक संदर्भों को पर्त दर पर्त उघाड़ते हैं।     हिन्दू या मुसलमान इतने कट्टर हो सकते हैं,इसकी सहज रूप से कल्पना भी नही की जा सकती। कट्टर हिंदूवाद की बखिया उघाड़ती भीष्म जी की भाषा शैली उस वातावरण का सफल चित्रांकन करती है।     उपन्यास का प्रारंभ नत्थू चमार के एक बदरंग और मोटे सुअर को मारने की लंबी उबाऊ और थका देने वाली प्रक्रिया से होता है। उसे बाद में मस्जिद के बाहर फिंकवा दिया जाता है, ...

हिरोशिमा कविता (अज्ञेय)

कविता: हिरोशिमा (अज्ञेय) एक दिन सहसा सूरज निकला अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक : धूप बरसी पर अंतरिक्ष से नहीं, फटी मिट्टी से। छायाएँ मानव-जन की दिशाहिन सब ओर पड़ीं-वह सूरज नहीं उगा था वह पूरब में, वह बरसा सहसा बीचों-बीच नगर के: काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर बिखर गए हों दसों दिशा में। कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त! केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी। फिर? छायाएँ मानव-जन की नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर: मानव ही सब भाप हो गए। छायाएँ तो अभी लिखी हैं झुलसे हुए पत्‍थरों पर उजरी सड़कों की गच पर। मानव का रचा हुया सूरज मानव को भाप बनाकर सोख गया। पत्‍थर पर लिखी हुई यह जली हुई छाया मानव की साखी है।

प्रसिद्ध उद्धरण:हजारीप्रसाद द्विवेदी

प्रमुख उद्धरण: हजारी प्रसाद द्विवेदी  स्नेह बडी दारूण वस्तु है,ममता बड़ी प्रचंड शक्ति है। मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूं। दीपक क्या है, इसकी ओर अगर ध्यान देना , तो उसके प्रकाश में उद्भाषित वस्तुओं को नहीं देख सकेगा, तू दीपक की जांच कर रहा है, उससे उद्भाषित सत्य की नहीं। पुरुष स्त्री को शक्ति समझकर ही पूर्ण हो सकता है; पर स्त्री, स्त्री को शक्ति समझकर अधूरी रह जाती है। स्त्री प्रकृति है। वत्स, उसकी सफलता पुरुष को बांधने में है, किंतु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है। किसी से न डरना , गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं। अज्ञजन का अपराध साधुजन मन मे नहीं लाते। धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है,वह मनुष्य मात्र का उत्तम लक्ष्य है। न्याय जहां से भी मिले , वहां से बलपूर्वक खींच लाओ। सामान्य मनुष्य जिस कार्य के लिए लांछित होता है, उसी कार्य के लिए बड़े लोग सम्मानीय होते हैं।