वीरगाथा काल की असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है , उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात प्राकृताभास हिंदी है। विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न , प्रचलित बोलचाल की भाषा को 'देशी भाषा' कहा है। जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए। प्राकृत की रूढियों से मुक्त पुराने काव्य - बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो। वज्रयान में महासुह (महासुख ) वह दशा बतलाई गई है जिसमे साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है, जिस प्रकार नमक पानी में। महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव अल्लाउद्दीन के समय में थे, इन्होंने अपने को गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में कहा है। हिंदी साहित्य के अंतर्गत शुक्ल ने पिंगल भाषा को ही स्थान दिया है डिंगल को नहीं। नामदेव ने हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग का भी आभास दिया। कबीर को नाथ पंथियों की ह्रदय पक्ष शून्य अन्तः साधना और प्रेमतत्व का अभाव खटका। कृष्णा भक्ति शाखा केवल प्रेमस्वरूप ही लेकर नई उमंग में फैली।
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